अमर बलिदानी करतार सिंह सराबा को भगतसिंह अपना अग्रज, गुरु, साथी तथा प्रेरणास्रोत मानते थे। वे भगतसिंह से 11 वर्ष बड़े थे और उनसे 11 वर्ष पूर्व केवल 19 वर्ष की तरुणावस्था में ही भारतमाता के पावन चरणों में उन्होंने हंसते हुए अपना शीश अर्पित कर दिया।
करतार सिंह का जन्म 1896 ई. में लुधियाना जिले के सराबा गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री मंगल सिंह का देहान्त जल्दी ही हो गया था। प्रारम्भिक शिक्षा खालसा स्कूल, लुधियाना में पूरी कर चाचा जी की अनुमति से केवल 14 वर्ष की अवस्था में पढ़ाई के लिए सान फ्रान्सिस्को चले गये।
शीघ्र ही उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हो गया। फिर तो वे ही करतार के मार्गदर्शक बन गये। ‘गदर पार्टी’ की स्थापना के बाद करतार उसके प्रमुख कार्यकर्ता बने। पोर्टलैण्ड में हुए उसके सम्मेलन में भी वे शामिल हुए। करतार के प्रयास से वहाँ ‘युगान्तर आश्रम’ की स्थापना हुई और पार्टी का साप्ताहिक मुखपत्र ‘गदर’ कई भाषाओं में छपने लगा। उन्होंने घर से पढ़ाई के लिए मिले 200 पौंड भी लाला जी को समाचार पत्र के लिए दे दिये। इस पत्र में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की कुछ प्रेरक सामग्री अवश्य होती थी।
प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत आये। उनका विचार था कि यह अंग्रेजों को बाहर निकालने का सर्वश्रेष्ठ समय है। उन्होंने रासबिहारी बोस तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे क्रान्तिकारियों से भी भेंट की। 21 फरवरी, 1915 को पूरे देश में एक साथ क्रान्ति की योजना बनी।
करतार सिंह पर पंजाब की जिम्मेदारी थी। उन्होंने कई धार्मिक स्थानों की यात्रा कर युवकों तथा सेना से सम्पर्क किया। रेल तथा डाक व्यवस्था को भंग करने की योजना बन गयी। इन सबका केन्द्र लाहौर था। वहाँ छावनी में शस्त्रागार के चौकीदार से भी बात हो गयी। धन के लिए कई डाके भी डाले गये।
पर दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। कृपाल सिंह नामक एक पुलिस वाले ने मुखबिरी की और धरपकड़ होने लगी। करतार अपने कुछ साथियों के साथ भारत की उत्तर पश्चिम सीमा की ओर चले गये; पर उन्हें सरगोधा के पास पकड़ लिया गया और लाहौर के केन्द्रीय कारागार में बन्द कर दिया। इनके साथ 60 अन्य लोगों पर पहला लाहौर षड्यन्त्र केस चलाया गया।
करतार ने अपने साथियों को बचाने के लिए सारी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायाधीश ने इन्हें अपना बयान बदलने को कहा; पर इस बार करतार ने और कठोर बयान दिया। अतः उन्हें फाँसी की सजा सुना दी गयी। एक बार उन्होंने जेल से भागने का भी प्रयास किया; पर वह योजना विफल हो गयी। करतार का उत्साह इतना था कि फाँसी से पूर्व इनका वजन बढ़ गया।
16 नवम्बर, 1915 को करतार सिंह सराबा और उनके छह साथियों ने लाहौर केन्द्रीय जेल में फाँसी का फन्दा चूम लिया। इनके नाम थे - विष्णु गणेश पिंगले, हरनाम सिंह, बख्शीश सिंह, जगतसिंह, सुरेन सिंह एवं सुरेन्द्र सिंह।
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अमर शहीद सरदार भगतसिंह के विषय में किसी को बताने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक भारतवासी उनके नाम और उनके काम से बखूबी परिचित है। परंतु आमतौर पर लोगों के मध्य उनकी छवि मात्र एक जोशीले नौजवान की ही है, जो बहुत कच्ची उम्र में ही अंग्रेजों से लोहा लेता हुआ फाँसी के फन्दे पर झूल गया। एक ऐसा आजादी का मतवाला जिसने डरना नहीं जाना, जो चंद्रशेखर आजाद के सबसे प्रिय व्यक्तियों में एक था। परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि मात्र 23 साल की उम्र में फाँसी पर चढ़ जाने वाला यह नौजवान प्रखर चिंतक भी था। उस उम्र में ही विशद अध्ययन था उसका।
यह आलेख भगतसिंह के उसी चिन्तक स्वरूप को हमारे सामने उजागर करता है। यह लेख उन्होंने फाँसी पर चढ़ने के कुछ ही दिन पूर्व, जेल में लिखा था और उनकी मृत्यु के उपरांत 27 सितंबर 1931 की लाहौर के अखबार ‘द पीपुल’ में प्रकाशित हुआ था।
दरअसल इस लेख के लिखे जाने के पीछे एक कहानी है। भगतसिंह कालकोठरी में बंद थे। उसी समय एक अन्य प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह भी लाहौर की उसी सेंट्रल जेल में बंद थे। वहाँ उन्होंने अन्य साथियों से सुना कि भगतसिंह नास्तिक है। सुनकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे स्वयं परम आस्तिक और धार्मिक व्यक्ति थे। भगतसिंह को समझाने के लिए उन्होंने कालकोठरी में भगतसिंह से मिलने का प्रयास किया। उनका प्रयास सफल भी हुआ और भगतसिंह से उनकी भेंट हुई। परंतु अपने सारे प्रयास के बाद भी वे भगतसिंह को समझाने में सफल नहीं हो पाए, उनकी नास्तिकता अपनी जगह कायम रही। अंततः उन्हें क्रोध आ गया और उस क्रोध में वे भगतसिंह से बहुत कुछ कह गए। बाबा रणधीर सिंह बुजुर्ग व्यक्ति थे, उनसे भगतसिंह ने कुछ नहीं कहा किंतु उनके जाने के बाद अपनी प्रतिक्रिया उन्होंने इस लेख के माध्यम से व्यक्त की। लेख आपके पढ़ने के लिए प्रस्तुत है।
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